“Fizaon Mein Manzar” is a piercing reflection of today’s emotional chaos — where love has lost its innocence, and betrayal wears the mask of affection. This poem is for anyone who feels love is no longer sacred, where heartbreak is common and empathy is rare. It expresses the silence of those who could burn the world but choose not to — and instead, quietly bear the weight of a collapsing moral world.

फ़िज़ाओं में मंज़र
अंगारे की बरसात वो भी कर सकती थी,
पर उसने ख़ामोशी को बेहतर समझा —
क्योंकि अंगारे की लौ में
वो ख़ुद भी झुलस सकती थी
ये कैसा मंज़र छा रहा है फ़िज़ाओं में?
फ़रेब पंख फैलाकर
उड़ान भरता जा रहा है,
किसी की दुनिया उजाड़ने का ग़म नहीं रहा,
किसी के जिस्म पर ख़ंजर उतरने से
दिल घबराता नहीं रहा
मोहब्बत का नाम लेकर,
हर रोज़ मोहब्बत का क़त्ल हो रहा है।
रातों की नींद को क्या
अब सुकून की तलब नहीं रही?
या सुकून
अब सिर्फ़ किसी की दुनिया तबाह करने में है?
दिल डगमगाता नहीं —
जब किसी के घर का चिराग़ बुझता है,
लब फिर भी मुस्कुरा रहे हैं
जहां मोहब्बत ही
ख़ंजर बनकर मोहब्बत को
शर्मसार कर रही है
ये कैसा मंज़र छा गया है फ़िज़ाओं में?
जहां यक़ीन नाम का लफ़्ज़
हर रोज़ खुद को ज़लील कर रहा है
ना इंतिहा का ग़म है,
ना बेवफ़ाई का शिकवा,
बस हर कोने में
मोहब्बत की लाश बिछाई जा रही है —
और लोग फूल समझ कर
उस पर क़दम रखते जा रहे हैं
Naseema Khatoon
FIZAON MEIN MANZAR – WHEN LOVE LOST ITS MEANING
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